मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ -Munshi Premchand Biography in Hindi
प्रेमचन्द का जन्म लमही ग्राम (वाराणसी) के एक कृषक परिवार में सन् 1880 ई० में हुआ। इन्होंने बी०ए० तक शिक्षा प्राप्त की। प्रेमचन्द को बाल्यावस्था से ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जीवन की विषम परिस्थितियों में उनका अध्ययनक्रम चला। इस बीच इन्होंने उर्दू का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। जीवन-संघर्ष में जूझते हुए ये एक स्कूल अध्यापक से ऊपर उठकर स्कूलों से सब-इंस्पेक्टर पद पर भी आसीन हुए। ये कुछ समय तक ‘काशी विद्यापीठ’ में अध्यापक भी रहे। इन्होंने कई साहित्यिक पत्रों का सम्पादन किया, जिनमें ‘हंस’ प्रमुख था। आत्मगौरव के साथ इन्होंने साहित्य के उच्च आदर्शों की रक्षा का प्रयत्न किया। इनका प्रारम्भिक नाम ‘धनपतराय’ था, किन्तु उर्दू में ये ‘नवाबराय’ के नाम से पत्र-पत्रिकाओं ने इनकी रचनाओं को बहुत महत्त्व दिया।
हिन्दी साहित्य के संवर्द्धन में प्रेमचन्द का अपूर्व योगदान रहा। उपन्यास-सम्राट तथा श्रेष्ठ कहानीकार के रूप में हिन्दी साहित्य में इनको विशेष गौरव तो मिला ही है; सम्पादक, अनुवादक, नाटककार, निबन्ध लेखक आदि के रूप में भी इनको प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। ये जीवन-संग्राम में निरन्तर कर्मवीर बने रहे। इनके कृतित्व में जीवन-सत्य का आदर्श रूप उभरकर आया है, जिसके फलस्वरूप ये एक सार्वभौम कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो सके हैं। सन् 1936 ई० में इनका निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय
मुंशी प्रेमचंद जी ने लगभग एक दर्जन उपन्यासों एवं तीन सौ कहानियों की रचना की उन्होंने ‘माधुरी‘ एवं ‘मर्यादा‘ नामक पत्रिकाओं का सम्पादन किया तथा ‘हंस‘ एवं ‘जागरण‘ नामक पत्र भी निकाले। मुंशी प्रेमचंद उर्दू रचनाओं में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखते थे। उनकी रचनाएँ आदर्शोन्मुख यथार्थवादी हैं, जिनमें सामान्य जीवन की वास्तविकताओं का सम्यक् चित्रण किया गया है। समाज-सुधार एवं राष्ट्रीयता उनकी रचनाओं के प्रमुख विषय रहे हैं।
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प्रेमचंद जी ने हिन्दी कथा-साहित्य में युगान्तर उपस्थित किया। उनका साहित्य समाज-सुधार और राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। वह अपने समय की सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा प्रतिनिधित्व करता है। उसमें किसानों की दशा, सामाजिक बन्धनों में तड़पती नारियों की वेदना और वर्णव्यवस्था की कठोरता के भीतर संत्रस्त हरिजनों की पीडा का मार्मिक चित्रण मिलता है।
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प्रेमचंद की सहानुभूति भारत की दलित जनता, शोषित किसानों, मजदूरों और उपेक्षिता नारियों के प्रति रही है। सामयिकता के साथ ही ‘उनके साहित्य में ऐसे तत्त्व भी विद्यमान हैं, जो उसे शाश्वत और स्थायी बनाते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी अपने युग के उन सिद्ध कलाकारों में थे, जिन्होंने हिन्दी को नवीन युग की आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाया।
भाषा
मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू से हिन्दी में आए थे; अत: उनकी भाषा में उर्दू की चुस्त लोकोक्तियों तथा मुहावरों के प्रयोग की प्रचुरता मिलती है।
प्रेमचंद जी की भाषा सहज, सरल, व्यावहारिक, प्रवाहपूर्ण, मुहावरेदार एवं प्रभावशाली है तथा उसमें अद्भुत व्यंजना-शक्ति भी विद्यमान है। मुंशी प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुसार परिवर्तित हो जाती है।
प्रेमचंद की भाषा में सादगी एवं आलंकारिकता का समन्वय विद्यमान है। ‘बड़े भाई साहब’, ‘नमक का दारोगा’, ‘पूस की रात’ आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
विचारधारा
अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। 1936 तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया।
प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी।
1936 में मुंशी प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं।
. प्रेमचंद का विवाह किससे हुआ था?
प्रेमचंद का पहला विवाह पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में उनके पिताजी ने करा दिया। उस समय मुंशी प्रेमचंद कक्षा 9 के छात्र थे। पहली पत्नी को छोड़ने के बाद उन्होंने दूसरा विवाह 1906 में शिवारानी देवी से किया जो एक महान साहित्यकार थीं। प्रेमचंद की मृत्यु के बाद उन्होंने “प्रेमचंद घर में” नाम से एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी।
. धनपत राय को प्रेमचंद नाम किसने दिया?
अंग्रेजों के खिलाफ लिखने पर, ब्रिटिश शासकों ने धनपत राय पर प्रतिबंध लगा दिया। जिससे उन्होंने अपना नाम बदलकर प्रेमचंद कर लिया।
. मुंशी प्रेमचंद को कलम का सिपाही क्यों कहा जाता है?
मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। उनके लेखन का मुकाबला आज के बड़े-बड़े लेखक भी नहीं कर पाते हैं इसलिए अमृत राय ने मुंशी प्रेमचंद्र को ‘कलम का सिपाही’ कहा है। क़लम का सिपाही हिन्दी के विख्यात साहित्यकार अमृत राय द्वारा रचित एक जीवनी है जिसके लिये उन्हें सन् 1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
प्रेमचन्द के 5 कहानी-संग्रह हैं-
‘सप्त सरोज’, ‘नवनिधि’, ‘प्रेमपूर्णिमा’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘लालफीता’, ‘नमक का दारोगा’, ‘प्रेम-पचीसी’, ‘प्रेम-प्रसून’, ‘प्रेम-द्वादशी’, ‘प्रेम-प्रमोद’, ‘प्रेम-तीर्थ’, ‘प्रेम-चतुर्थी’, ‘प्रेम-प्रतिज्ञा’, ‘सप्तसुमन’, ‘प्रेम-पंचमी’, ‘प्रेरणा’, ‘समर-यात्रा’, ‘पंच-प्रसून’, ‘नवजीबन’ आदि। इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं- ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘काया-कल्प’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’, ‘मंगलसूत्र’ (अपूर्ण)। इन्होंने ‘संग्राम’, ‘ कर्बला’ और ‘प्रेम की वेदी’ नाटक भी लिखे। सम्पादन, जीवनी, निबन्ध, अनुवाद और बालोपयोगी साहित्य में भी इनका महत्त्वपूर्ण है। ‘कुछ विचार’ इनकी साहित्यिक तथा जीवन-सम्बन्धी अन्य मान्यताओं का महत्त्वपूर्ण संग्रह है। प्रेमचन्द का विशाल कहानी-साहित्य मानव-प्रकृति, मानव-इतिहास तथा मानवीयता के हृदयस्पर्शी एवं कलापूर्ण से परिपूर्ण है। सांस्कृतिक उन्नयन, राष्ट्र सेवा, आत्मगौरव आदि का सजीव एवं रोचक चित्रण करने के साथ-साथ इन मानव के वास्तविक स्वरूप को उभारने में अद्भुत कौशल दिखाया है। ये अपनी कहानियों में दमन, शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलन्द करते तथा सामाजिक विकृतियों पर व्यंग्य के माध्यम से चोट करते रहे हैं। रचना-विधान को द इनकी कहानियाँ सरल एवं सरस हैं तथा उनमें जीवन में नवचेतना भरने की अपूर्व क्षमता विद्यमान है। प्रेमचन्द की कहानी-रचना का केन्द्रबिन्दु मानव है। इनकी कहानियों में लोक जीवन के विविध पक्षों का म प्रस्तुतिकरण हुआ है। कथावस्तु का गठन समाज के विभिन्न धरातलों को स्पर्श करते हुए यथार्थ जगत् की घटनाओं भावनाओं, चिन्तन-मनन एवं जीवन-संघर्षों को लेकर हुआ है। प्रेमचन्द ने पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण करते हुए मानव की अनुभूतियों एवं संवेदनाओं को महत्व दिया है। के मानव-मन के सूक्ष्मभावों का यथातथ्य तथा आकर्षक चित्र उतारने में सफल हुए हैं। प्रेमचन्द के कथोपकथन स्वाभाविक एवं पात्रानुकूल हैं। ये पात्रों के मनोभावों के चित्रण में सक्षम, मौलिक, सबै रोचक एवं कलात्मक हैं। इनमें हास्य-व्यंग्य तथा वाक्पटुता का विशिष्ट सौन्दर्य है। प्रेमचन्द का दृष्टिकोण सुधारवादी है इनकी कहानियों यथार्थ का अनुसरण करती हुई आदर्शोन्मुख होती है। उनमें आदर्श की प्रतिष्ठा जीवन की व्यापकता निय हुए होती है। प्रेमचन्दजी ने भाषा-शैली के क्षेत्र में भी व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों की लाक्षणिक आकर्षक योजना ने अभिव्यक्ति को सशक्त बनाया है। वस्तुतः इनकी कहानियों के सौन्दर्य का मुख्य आधार उनके पात्रोको सहजता है, जिसके लिए जन-भाषा का स्वाभाविक प्रयोग किया गया है। इनकी भाषा में व्यावहारिकता एवं साहित्यिकताक सजीव समन्वय है। भाषा-शैली रोचक, प्रवाहयुक्त एवं प्रभावपूर्ण है। कहानी के विकास एवं सौन्दर्य के अनुकूल वातावरण तथा परिस्थितियों के कलात्मक चित्र पाठक पर अमिट छाप छो जाते हैं। प्रेमचन्द की कहानियों का लक्ष्य मानव जीवन के स्वरूप, उसकी गति तथा उसके सत्य की व्याख्या करना रहा है। प्रेमचन्द की कहानी-कला की मौलिकता, उसकी गतिशीलता एवं व्यापकता ने हिन्दी को केवल समृद्ध ही नहीं किया वरन् उसके विकास के अगणित स्रोतों का उद्घाटन भी किया है। ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘पूस की रात’, ‘ईदगाह’, ‘सारन्धा’, ‘आत्माराम’ आदि इनकी सुप्रसिद्ध कहानियों है।
बलिदान
मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। भीते बेला के ठाकुर जब से कान्नरटिक्ति हो गए हैं, उनका नाम मंगलसिंह हो गया है, अब उन्हें कोई मंगल कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जबसे हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली हैं और गाँव का मुखिया हो गफ है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कोई कल्लू कहे तो आँखे लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमद ने उसे मटियामेट कर दिया। धीरे-वारे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा जी एक तकियेदार माने पर बैठा हुआ नारियल पिया करता था, अब सिर पर टोकरी लिए खाद फेंकने जाता है। परन्तु उसके मुख पर भी एक प्रकार को गम्भीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल में अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इन पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। गले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब केवल पांच बीघा जमीन है। केवल दो बैल हैं। एक हल की खेती होती है। लेकिन पंचायतो में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान को दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उसके सामने मुर्ह नहीं खोल सकते। हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खाई। वह बीमार जरूर पड़ता है, कुंआर मास में मलेरिया से कभी न बचता था। लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए हो चंगा हो जाता था। इस वर्ष भी कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो हो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवा न की। परन्तु अबकी ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ताह बोता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गयाः पर हरख चारपाई से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत मालूम हुई। उसका लड़का गिरधारी, कभी नीम के सीके पिलाता, कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़, पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए। एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए, बेचारा टूट्टी खाट पर पड़ा राम-राम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- “बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; कुनैन क्यो नहीं खाते? हरखू ने उदासीन भाव से कहा- “ती लेते आना।” दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- “बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े है कि बिना दवा दर्पन के अच्छे हो जाओगे?” हरखू ने उसी मन्द भाव से कहा- “तो लेते आना।” लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर उसे देना दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची संवेदना से। न मंगलसिंह ने खबर ली, नकालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही हैं। हर दालान में खाट पर पड़ा रहता। मंगलसिंह कभी नजर आई कालिकादीचेवा, यह दवा नहीं लाए?” मंगलसिंह कतराकर निकल जाते। कालिकाटीन दिखाई देते तो उनसे कहीं भान करताः लेकिन यह भी नजर बचा लेता। या तो उसे यह सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना आती या वह पैसों को जान से भी प्रिय समझता था अथवा वह जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आई। उसको दशा दिनों-दिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम से निकाला। क्रिया-कर्म बटु हौसले से किया। कई गाँव के ब्राह्मणों को निमन्त्रित किया।
बेला में होली न मनाई गई, न अबीर और गुलाल उड़ी, न डफली बजी, न भंग की नालियों वहीं। कुछ लोग मर में हरख को कोसते जरूर थे कि बुड़े को आज ही मरना था, दो-चार दिन बाद मरता।
लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनन्द मनाता। वह शहर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ौसी के रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुंचती।
(2)
हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचो बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद पौस से लदी हुई मेड़ बाँध से तोक थी। उनमें तीन-तीन फसले पैदा होती थी। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धाबे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फंसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान, लाला ओकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थी। कोई सालभर का लगान पेशगी देने को तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने को तुला हुआ था। लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे। उनका विचार था कि गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे तो खेत उसी को देने चाहिए। अस्तु, जब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और चैत का महीना भी समाप्त होने आया, तब जमीदार साहिब ने गिरधारी को बुलाया और उससे पूछा- “खेतों के बारे में क्या कहते हो?” गिरधारी ने रोकर कहा- “उन्हीं खेतों ही का आसरा है, जोतूंगा नहीं तो क्या करूंगा?”
ओंकारनाथ- “नहीं, जरूर जोतो, खेत तुम्हारे हैं। मैं तुमसे छोड़ने को नहीं कहता हूं। हरखू ने उन्हें बीस साल तक जोता। उन पर तुम्हारा हक है। लेकिन तुम देखते हो अब जमीन की दर कितनी बढ़ गई है। तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे १० रुपये मिल रहे हैं। और नजराने के रुपये सो अलग। तुम्हारे साथ रियायत करके लगात वही रखता हूँ, पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे।”
गिरधारी- “सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम में उठ गई। अनाज खलिहान में हैं। लेकिन दादा के बीमार हो जाने से उपज भी अच्छी नहीं हुई। रुपये कहाँ से लाऊँ?”
ओंकारनाथ- “यह सच है, लेकिन मैं इससे ज्यादा रियायत नहीं कर सकता।”
गिरधारी- “नहीं सरकार, ऐसा न कहिए। नहीं तो हम बिना मारे मर जाएँगे। आप बड़े होकर कहते हैं तो बेल-बधिया बेचकर पचास रुपया कर सकता हूँ। इससे बेशी की हिम्मत नहीं पड़ती।” ओंकारनाथ चिड़कर बोले “गुऔर को को बनाते है। लेकिन हमारे ऊपर है है इनके मारे यूमर निकल जाता है। बड़े दिन दिन पौत्रों के लिए तड़के तरकार कारणे आ गए, कभी तहसीलदार कहो नक्कू बनूं और सबको किराहते हैं। अगर न कारक रसद खुराक के बद में देने पड़ते हैं। यह सब कहाँ से आये बस पड़ीजी कोरकार्ड लेकिन हमें तो माल्या ने इसलिए बनाया है कि एक पाकर और दूसरे को कर दें ही हमारा काम है। तुमाते साथ इतनी रियायत कर रहा हूँ। लेकिन तुम इतनी रिया परीहाताने में एक पैसे को भी रियायत न होगी। अगर एक हफ्ते के अन्दर दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे,नहीं तो नहीं मैं दूसरा बजा कर दूंगा।”
(3)
गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 100 रुपये का प्रबन्ध करना उसके कामे बाहर या सोचने अगर दोनों बैल बेब दूं तो खेत ही लेकर क्या करूंगा? घर बेचूं तो यहाँ लेने वाला ही कौन है?और फिर बा-दादों का नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ है, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपयेगा 30 रुपये से अधिक न मिलेंगे। तूं तो देता कौन है? अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़े हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं है। यहीं उन्हीं की बेचता। ले-देकर एक हंसली बनवाई थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। साल पर हो गया. छुड़ाने की नौबत न आई। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिन्ता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय नं सूझता था। गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता था, रात को नीद न आतीः खेतों के निकलने का नाते ही उसके हृदय में हुक सी उठने लगती। हाय वह भूमि जिसे हमने वर्षों जीता, जिसे खाद से पटा जिसमें महें रखी, जिसको मेचनाई उसका मजा अप दूसरा उठाएगा?
ये खेत गिरधारी के जीवन के अंश हो गए थे। उनकी एक एक अंगुल भूमि उसके रात से रंगी हुई थी। उसका एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो गया था।
उनके नाम उसकी जिहा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के कोई चीचोगी कोई बाभी था, कोई नालेवाला, कोई तानयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसको आँखों के सामने बिच जाता था। यह इन खेतों को चर्चा इस तरह करता, मानो वे सजीव है। मानो उसके भले-बुरे के साथी है। उसके जीवन की सारी आशाएँ सारी इच्याई सारे मनसूबे, सारी सत्र की मिता, सारे माई किले इन्नों खेोतोपर चत थे। इसके बिना यह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था और हो हाथ से निकल जाते है। कराकर घर से निकल जाता औरत को मेड़ों पर बैठा हुआ रोता मानो उससे विदा हो रहा हो। एकसप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बन्दोबस्त कर सका। आये दिन से मालूम हुआ दीन ने 100 रुपये देकर 10 रुपये पर खेत ते लिये गिरधारी ने एक ठण्डी सांस ली।
(4)
लेकिन सुभागों यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के पर गई और उयक स्त्री को खूब लबेड़ा-कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं देखें, कौन मेरी खेत में हल से जाता है। अपना और उसका लोहू एक कर दूँ। पढौसियों ने उसका पक्ष लिया, सब तो है, आपस में यह चढ़ा-उतरी र करना चाहिए। नारायण ने धन दिया, तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे? सुभागों ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चिन्त शान्त हो गया। किन्तु वही बायु जो पानी में लहरें पैदा करती है, वृक्षों को जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ौसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती। इথা गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा? अब यह जीवन कैसे कटेगा? ये लड़क किसके द्वार पर जाएँगे? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनत और सम्मान का सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। यह अब तक गृहस्थ था. उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में धन न था. पर मान था। नाई, बढ़ई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार, ये सब उसका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहां! अब कौन उसकी बात पूछेगा? कौन उसके द्वार पर आवेगा? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे कौन बैलों को नोंद में लगावेगा? वह दिन अब कहाँ, जब गीत गा-गाकर हल चलाता था। अपने लहलहाते हुए खेतों को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज का ढेर सामने रक्खे अपने को राजा समझता था। अब अनाज के टोकरे भर-भरकर कौन लावेगा? अब खत्ते कहाँ? बखार कहाँ? यही सोचते सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी। गांव के दो-चार सज्जन, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनमे भी खुलकर न बोलता। उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नजर में गिर गया हूँ! अगर कोई समझाता कि तुमने क्रिया कर्म में व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिए, तो उसे बहुत दुःख होता। वह अपने उस काम पर जरा भी न पछताता। मेरे भाग्य मे जो लिखा है वह होगा; पर दादा के ऋण से उऋण हो गया। उन्होंने अपनी जिन्दगी में चार बार खिलाकर खाया। क्या मरने के पीछे इन्हें पिण्डे पानी को तरसाता? इस प्रकार तीन मास बीत गए और आसाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटाएँ आई, पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे। बढ़ई हलों की मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहा आता, अपने हलों को निकाल निकाल देखता; उसकी मुठिया टूट गई है, इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है। यह देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा हुआ बढ़ई के यहाँ गया और बोला- “रन् मेरे हल भी बिगड़े हुए है, चलो बना दो।” रज्जू ने उसकी ओर करुणभाव से देखा और अपना काम करने लगा।
(5)
कि मंगलसिंह आए और इयर-उपर की बाते करके बोले- “गोई को बाँधकर कब तक खिलाओगे? निकाल क्यों नहीं देते?” गिरधारी ने मलिन भाव से कहा- “हाँ, कोई गाहक आये तो निकाल हूँ।”
मंगलसिंह “एक गाहक तो हमों है, हमी को दे दो।”
गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया और गरजकर बोला- “गिरधर, तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं वैसा कहो। तीन महीने से हीलाहवाला करते चले आते हो। अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल को अगोरे बैठे रहे।”
गिरधारी ने दीनता से कहा- “साह, जैसे इतने दिनों माने हो आज और मान जाओ। कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूंगा।”
मंगल और तुलसी ने इशारे से बातें की और तुलसी भुनभुनाता हुआ चला गया। तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला- “तुम इन्हें ले लो तो घर के घर ही में रह जाएँ। कभी-कभी आँख में देख तो लिया करूंगा।”
मंगल- “मुझे अभी तो ऐसा कोई काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा।”
गिरधारी- “मुझे तुलसी के रुपये देने हैं, नहीं तो खिलाने को तो भूसा है।”
मंगल- “यह बड़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दे।”
सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया। कार्य-कुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का यह अच्छा सुअवसर मिला। 80 रुपये की जोड़ी 60 रुपये में ठीक कर ली।
गिरधारी ने अब बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह! यह मेरे खेतों के कमानेवाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले, जिनके लिए पहर रात से उठकर छाँटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिन्ता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा घर दिन भी हरियाली उखाड़ा करता था। ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों के दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे