Bhagwati Charan Verma-भगवतीचरण वर्मा का जीवन परिचय |
भगवतीचरण वर्मा
भगवतीचरण वर्मा का जन्म सन् 1903 ई० में उन्नाव जिले के शफीपुर नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए०, एल०एल०ची० की परीक्षाएँ, उत्तीर्ण की तथा प्रगतिशील कवियों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। ये एक गणमान्य उपन्यासकार तथा साथ ही एक उच्चकोटि के व्यंग्यात्मक कहानीकार के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। फिल्म तथा आकाशवाणी के क्षेत्र में इनका विशेष योगदान रहा। हिन्दी-साहित्य की सेवा करते हुए सन् 1981 ई० में इनका लखनऊ में देहान्त हो गया।
इनके कहानी-संग्रह हैं- इंस्टालमेण्ट’, ‘दो बाँके’, ‘राख और चिनगारी’। ‘मोर्चाबन्दी’ नाम से इनकी व्यंग्य कथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है। ‘पतन’, ‘चित्रलेखा’, ‘तीन वर्ष’, ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ भाषा शैली सामर्थ्य और सीमा’, ‘रेखा’, ‘सीधी-सच्ची बाते’, ‘सबहिं नचावत राम गुसाई’, ‘प्रश्न और मरीचिका इनके श्रेष्ठ उपन्यास है। इनके अतिरिक्त इन्होंने कविताएँ, रेडियो रूपक तथा नाटक आदि भी लिखे हैं। वर्माजी की कहानी-कला की सजीवता पाठक को मुग्ध कर देती है। सरलता, स्पष्टता, सहजता एवं व्यंग्यात्मक अभिव्यंजना इनकी कहानियों की अन्य प्रमुख विशेषताएँ हैं। वर्माजी ने अपनी कहानियों में अधिकतर सामाजिक परिवेशों तथा पारिवारिक प्रसंगों को कथानक के रूप में ग्रहण किया है। कथानक, लघु, किन्तु कलापूर्ण है। सामान्य घटनाओं का मार्मिक एवं चुटीला प्रस्तुतिकरण इनकी कहानी-कला की एक निजी विशेषता है। कहानियों के शीर्षक आकर्षक एवं कुतूहलपूर्ण है।
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इन्होंने मुख्यतः चरित्रप्रधान, समस्याप्रधान तथा विचारप्रधान कहानियों लिखी है। कहानियों के पात्र समाज के विभिन्न वगों से चुने गए हैं। उनके चरित्र चित्रण में इन्होंने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया है। पात्रों के मनोगत भावों को स्पष्ट करने तथा उनकी मनोग्रन्थियों को खोलने में इनका कौशल देखते ही बनता है। वर्माजी ने कहानियों में कथोपकथनों की योजना मनोरंजक ढंग से की है। कथोपकथन नाटकीय, संक्षिप्त एवं सार्थक है।
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इनकी भाषा-शैली सरल, सहज एवं व्यावहारिक है। शैली में व्यंग्य के साथ-साथ प्रवाह भी दर्शनीय है। कहानियों की भाषा पात्रों एवं परिस्थितियों के अनुसार बदलती है। इनकी अधिकतर कहानियों में शिष्ट हास्य एवं परिमार्जित व्यंग्य देखने को मिलता है। परिस्थिति एवं प्रसंगानुसार रोचक एवं प्रभावशाली वातावरण के चित्रण में से सिद्धहस्त है। इनको कहानियाँ पाठकों के समक्ष जीवन की विकृतियों और विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए यथार्थता का बोध कराती है।
‘दो बॉक’, ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’, ‘प्रायश्चित्त’, ‘काश में कह सकता’, ‘विक्टोरिया क्रास’ आदि इनको प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
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प्रायश्चित्त
अगर कबरी बिल्ली पर भर में किसी से प्रेम करती थी, तो रामू की बहू से और अगर राम् की बहू घर घर किसी से घृणा करती थी, तो कबरी बिल्ली से। रामू की बहू, दो महीने हुए मायके से प्रथम बार ससुराल आई के पति की प्यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भण्डार घर की चाभी उसकी करधनी में लटका लगी, नौकरों पर उसका हुक्म चलने लगा, और रामू की बहू घर में सबकुछ। सासजी ने माला ली और पूजा-अर में मन लगाया।
मलाकर ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भण्डार-घर खुला है, तो कभी भण्डार-घर में बैठे-बैठे सी गां कबरों बिल्ली को मौका मिला, घी-दूध पर अब वह जुट गई। रामू की बहू की जान आफत में और कबरी बिल्ले के छक्के-पंजें। रामू की बहू हाँडी में घी रखते-रखते ऊँघ गई और बचा हुआ घी कवरी के पेट में। रामू की छ दूध ढककर मिसरानी को जिस देने गई। और दूध नदारद। अगर बात यह यहीं तक रह जाती, तो भी बुरा न य कबरी रामू की बहू से कुछ परच गई थी कि रामू की बहू के लिए खाना-पीना दुश्वार। रामू की बहू के कमरे रबड़ी से भरी कटोरी पहुंची और रामू जब आए तब कटोरी साफ चटी हुई। बाजार से मलाई आई और जब त रामू की बहू ने पान लगाया, मलाई गायब।
रामू की बहू ने तै कर लिया कि या तो वहीं घर में रहेगी या फिर कबरी बिल्ली ही। मोरचाबन्दी हो गई. औ दोनों सतर्क। बिल्ली फंसाने का कठघरा आया, उसमें दूध, मलाई, चूहे और भी बिल्ली को स्वादिष्ट लगने वाले विविध प्रकार के व्यजन रखे गए, लेकिन बिल्ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलाई अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी, पर अब वह साथ लग गई, लेकिन इतने फासिले पर कि रामू की बा उस पर हाथ न लगा सके।
कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू को घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थी सास की मीड शिड़कियों और पतिदेव को मिलता था रूखा सूखा भोजन। एक दिन रामू की बहू ने रामू के लिए खोर बनाई। पिस्ता, बादाम, मखाने और तरह-तरह के मेवे दूध औटाए गए, सोने का वर्क चिपकाया गया और खीर से भरकर कटोरा कमरे के एक ऐसे ऊँचे ताक पर रखा गया जहाँ बिल्ली न पहुँच सके। रामू की बहु इसके बाद पान लगाने में लग गई।
उधर बिल्ली कमरे में आई, ताक के नीचे खड़े होकर उसने ऊपर कटोरे की ओर देखा, सूँघा, माल अच्छा।
बाक को ऊंचाई अन्दाजी और रामू की बहू पान लगा रही है। पान लगाकर रामू की बहू सासजी को पान देने चाते ई और कबरी ने छलाँग मारी, पंजा कटोरे में लगा और कटोरा झनझनाहट की आवाज के साथ फर्श पर। आवाज रामू को बहु के कान में पहुंची, सास के सामने पान फेंककर वह दौड़ी, क्या देखती है कि फूल का टोरा टुकड़े-टुकड़े, खोर फर्श पर, बिल्ली डटकर खीर उड़ा रही है। रामू की बहू को देखते ही कबरी चम्पत जॉ। रातभर उसे नींद न आई, किस दांव से कबरी पर वार किया जाये कि फिर जिन्दा न बचे, यही पड़े पड़े भोवती रही। सुचत हुई और वह देखती है कि कबरी देहरों पर बैठी बड़े प्रेम से उसे देख रही है।
रामू की बहू ने कुछ सोचा, इसके बाद मुस्कराती हुई वह उठी, कबरी रामू की बहू के उठते ही खिसक गई। रामू की बहू एक कटोरा दूध कमरे के दरवाजे को देहरी पर रखकर चली गई। हाथ में पाटा लेकर वह लौटी तो देखती है कि कबरी दूध पर जुटी हुई है। मौका हाथ में आ गया, सारा बल लगाकर पाटा उसने बिल्ली पर पटक दिया। कबरी न हिली म डुली, न चौखी न विल्लाई, बस एकदम उलट गई। आवाज जो हुई तो महरी झाडू छोडकर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्थल पर उपस्थित हो गई। रामू की बहू सिर झुकाए हुए अपराधिनी की भांति बातें सुन रही है।
महरी बोली- “अरे राम बिल्ली तो मर गई, मॉजी, बिल्ली की हत्या बहू से हो गई, यह ती बुरा हुआ।”
मिसरानी बोली- “मॉजी, बिल्ली की हत्या और आदमी की हत्या बराबर है, हम तो रसोई बनावेगी, जब तक बहू के सिर हत्या रहेगी।”
सामजी बोली- “हाँ ठीक तो कहती हो, अब जब तक बहू के सिर से हत्या न उतर जाए, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है। बहू यह क्या कर डाला?” महरी ने कहा- “फिर क्या हो, कहो तो पण्डितजी को बुलाए लाएँ।”
सास को जान में जान आई “अरे हो, जल्दी दौड़ के पण्डितजी को बुला ला।”
बिल्ली की हत्या की खबर बिजलों की तरह पड़ौस में फैल गई पहौस की औरतों का रामू के घर में तोता बंध गया। चारो तरफ से प्रश्नों की बौछार और रामू की बहू सिर झुकाए बैठी।
पण्डित परमसुख को जब यह खबर मिली, उस समय वे पूजा कर रहे थे। खबर पाते ही चे उठ
पड़े-पण्डिताइन से मुस्कराते हुए बोले- “भीजन न बनाना, लाला घासीराम की पतोहू ने किल्ली मार डाली,
प्रायश्चित्त होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा।”
पण्डित परमसुख चौबे छोटे-से मोटे से आदमी थे। लम्बाई चार फुट दस इंच और तोद का घेरा अठावन इंचा चेहरा गोल-मटोल, मूंछ बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुंचती हुई।
कहा जाता है कि मथुरा में जब पसेरी खुराकवाले पण्डितों को ढूँढा जाता था तो पण्डित परममुखानी को उस लिस्ट में प्रथम स्थान दिया जाता था।
पण्डित परमसुख पहुँचे, और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी सासजों, मिसरानी, किसनू को माँ, छान्नू की दादी और पण्डित परमसुख। बाकी स्त्रियर्या बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थी।
किसनू की मां ने कहा- “पण्डितजी, बिल्ली की हत्या करने से कौन नरक मिलता है?”
पण्डित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा, “बिल्ली की हत्या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता, वह महरत जब मालूम हो, जब बिल्ली की हत्या हुई, तब नरक का पता लग सकता है।”
चेहरे पर धुंधलापन आया। माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकुड़ी और स्वर गम्भीर हो गया-”हरे कृष्णा हरे कृष्णाः बढ़ा बुरा हुआ, प्रातःकाल ब्रा-मुहूर्त में बिल्ली की हत्या। घोर कुम्भीपाक नरक का विधान है। रामू की माँ, यह तो बड़ा बुरा हुआ।”
रामू की माँ की आँखों में आंसू आ गए- “तो फिर पण्डितजी, अब क्या होगा, आप ही बतलाएँ। पण्डित परमसुख मुस्कराए- “रामू की माँ, चिन्ता की कौन-सी बात है, हम पुरोहित फिर कौन दिन के लिए है? शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है, सो प्रायश्चित्त से सबकुछ ठीक हो जाएगा।” रामू की माँ ने कहा- पण्डितजी, उसी लिए तो आपको बुलवाया था, अब आगे बतलाओ कि क्या किया जाये।”
“किया क्या जाये, यही एक सोने की बिल्ली बनवाकर बहू से दान करवा दी जाये। जब तक बिल्ली न दे दी जाएगी, तब तक तो घर अपवित्र रहेगा। बिल्ली दान देने के बाद इक्कीस दिन का पाठ हो जाए।”
छन्नू की दादी “हॉ और क्या, पण्डितजी ठीक तो कहते हैं. बिल्ली अभी दान दे दी जाये और पाठ फिर हो जाये।”
रामू की माँ ने कहा- “तो पण्डितजी, कितने तोले की बिल्ली बनवाई जाये?” पण्डित परमसुख मुस्कराए, अपनी तोद पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा- “बिल्ली कितने तोले की बनवाई जाये? अरे रामू की माँ शास्त्रों में तो लिखा है कि बिल्ली के वजन भर सोने की बिल्ली बनवाई जाये, लेकिन अब कलियुग आ गया है, धर्म कर्म का नाश हो गया है, श्रद्धा नहीं रही। सी रामू की माँ. बिल्ली के तौलभर की बिल्ली तो क्या बनेगी, क्योंकि बिल्ली बीस इक्कीस सेर से कम की क्या होगी। हाँ, कम-से-कम इक्कीस तोले की बिल्ली बनवा के दान करवा दो, और आगे तो अपनी-अपनी श्रद्धा!”
रामू की माँ ने आँखे फाड़कर पण्डित परमसुख को देखा “अरे बाप रे, इक्कीस तोला सोना! पण्डित जी यह तो बहुत है, तोलाभर की बिल्ली से काम न निकलेगा?”
पण्डित परमसुख हंस पड़े- “रामू की माँ। एक तोला सोने की बिल्ली! अरे रुपया का लोभ बहू से बढ़ गया? बहू के सिर बड़ा पाप है, इसमें इतना लोभ ठीक नहीं!
मोल-तोल शुरु हुआ और मामला ग्यारह तोले की बिल्लों पर ठीक हो गया। इसके बाद पूजा-पाठ की बात आई। पण्डित परमसुख ने कहा-”उसमें क्या मुश्किल है, हम लोग किस दिन के लिए हैं; रामू की माँ, मैं यात कर दिया करूंगा, पूजा की सामग्री आप हमारे घर भिजवा देना।” “पूजा का सामान कितना लगेगा ?”