Jaishankar Prasad ka Jivan Parichay — जानिए महाकवि जयशंकर .
जयशंकरप्रसाद का जन्म सन् 1890 ई० में माराणसी के ‘मुंपनी साहू’ नामक प्रसिद्ध परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवीप्रसाद तथा पितामह का नाम शिवरत्न साहू या। इनके घर में शिव की उपासना को जाती थी एवं विद्वानों का आदर होता था। अपनी पारिवारिक विवशताओं के कारण वे कक्षा आठ तक को ही स्कूली शिक्षा प्राप्त कर सके। स्वाध्यायी प्रसाद ने घर पर ही संस्कृत के गहन अनुशीलन के साथ-साथ हिन्दी उर्दू एवं बीला भाषा का प्रर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आर्थिक रूप से संकटप्रन्त उपशंकरप्रसाद अनवरत रूप से साहित्य-सर्जना करते रहे। इनकी गणना मूर्धन्य साहित्यकारों में की जाती है। एक सोर्थस्य कवि होने के साथ-साथ ये सुप्रसिद्ध नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध लेखक भी थे। जयशंकराप्रसाद ने स्वानुभूति को साहित्य की विविध विधाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया तथा समुन्नत बनाया। सन् 1937 ई० में इनका निधन हुआ।
जयशंकरप्रसाद के पाँच कहानी संग्रह हैं-
‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आंधी और इन्द्रजाल”। इन्होंने ‘कंकाल’, तितली’ तथा ‘इरावती’ (अपूर्ण) उपन्यास भी लिखे है। ‘राज्यश्री’, ‘अजातशत्रु’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘चन्द्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ आदि इनको प्रसिद्ध नाट्य-कृतियां हैं। ‘कामायनी’ इनका विश्व प्रसिद्ध कलात्मक महाकाव्य है।
प्रसादजी की कहानियों की सांस्कृतिक चेतना तथा मनोवैज्ञानिक एवं भावात्मक चित्रण अत्यन्त उच्चकोटि का बन पड़ा है। इनकी कहानी रखना का घरातल साहित्यिक एवं कलात्मक है। इनकी कहानियों मानवता की उद्योधक है। प्रसादजी को कहानियों में गहरी भावमयता एवं सूक्ष्मता देखने को मिलती है। इनकी कहानियों का आधार ऐतिहासिक हो अथवा काल्पनिक; काव्य तत्व एवं नाटकीयता इनकी अधिकांश कहानियों में समाहित है। प्रसादजी के कथानक प्रवाहपूर्ण एवं चित्ताकर्षक है। कथावस्तु में सांस्कृतिक चेतना, प्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, चरित्रगत सौन्दर्य आदि तत्त्व उभरकर आते हैं। प्रकृति के काव्यात्मक चित्र भी कथावस्तु का सौन्दर्य बढ़ाने में अत्यधिक सफल हुए है।
प्रसादजी ने चरित्र-चित्रण में मानवीय गरिमा को महत्व दिया है तथा पात्रो के व्यक्तित्व को मार्मिकता से उभारा है। पात्रों की भावुकता उत्तको सक्रिय बनाती है तथा मानसिक संघर्षों में विवेक ऊपर उठकर कर्तव्य का मार्ग निर्धारित करता है। आकाशदीप 203 इसके कथोपकथन मार्मिक, सजीव एवं प्रभावशाली है, जिनसे कहानी की रोचकता बढ़ती है एवं उसका स्वाभाविक विकास होता है। साथ ही ये कथोपकथन संक्षिप्त नाटकीय एवं मनोवैज्ञानिक है। प्रसाद जी की भाषा परिष्कृत, कलात्मक एवं संस्कृतनिष्ठ है तथा शैली में लालित्य, नाटकीयता एवं काव्यमयता है। स्थिति एवं पात्रओं की मनोदशा के कलापूर्ण चित्रण एवं कथावस्तु का सौन्दर्य उभारने में उपयुक्त एवं कवित्वपूर्ण वातावरण की सुयोजना प्रसादजी की कहानी कला की अपनी प्रमुख विशेषता है। ग्राम’, ‘आकाशदीप’, ‘इन्द्रजाल’, ‘सलीम’, ‘मधुआ’, ‘आँधी’ आदि जयशंकरप्रसाद की प्रमुख कहानियों है!
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आकाशदीप
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“बन्दी!” (1) “क्या है? सोने दो।” “मुक्त होना चाहते हो?” “अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रही।” “फिर अवसर न मिलेगा।” “बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।” “आँधी की सम्भावना है। यही अवसर है। आज मेरे बन्धन शिथिल हैं।” “तो क्या तुम भी बन्दी हो?” “हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी है।” “शस्त्र मिलेगा?” “मिल जाएगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे?” “हाँ।” समुद्र में हिलोरे उठने लगी। दोनों बन्दी आपस में टकराने लगे। पहले बन्दी ने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। दूसरे का बन्धन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गए। दूसरे बन्दों ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बन्दों ने कहा- “यह क्या? तुम स्त्री हो?” “क्या स्त्री होना कोई पाप है?” अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा। “शस्त्र कहाँ है- तुम्हारा नाम?” “चम्पा।” तारक-खचित नोल अम्बर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अन्धकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आन्दोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढ़कने लगी। एक मतवाले