जीवन परिचय Kabir Das Ka Janm
सन्त कवि कबीर का जन्य काशी के निकट संवत् १०५५० (सन् १३१८ ई०) में हुआ था। कहा जाता है कि कबीरदास किसी विधवा ब्राहाणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। वह लोक से शिशु को काशी के समीप लहरतारा नामक तालाब के निकट छोड़ गयी थी। नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपती ने इनका पालन किया और कबीर नाम रखा। कबीरदास पड़े-लिखे नहीं थे, जैसा कि उन्होंने स्वीकार किया है
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ। चारो जुग का महातमा, मुखहिँ जनाई बात ।।
कबीर के विषय में डॉ. हजारोप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-
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सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के आगे निरीह, भेषधारी के आने प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कतीर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय। कबीर के गुरु स्वामी रामानन्द थे। उन्होंने गृहस्थ जीवन भी व्यतीत किया। १२० वर्ष की आयु में संवत् १५०५ वि (सन् १५१८ ई०) में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके शरीरान्त के विषय में अधोलिखित दोहा उल्लेखनीय है-
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संवत् पन्द्रह सौ पचहत्तरा, कियौ मगहर गौन।
माघ सुदी एकादशी, रल्यौ पौन में पीन ॥
साहित्यिक व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कबीर एक मस्त फकीर थे और मन की मौज में आकर इकतारे पर गाया करते थे। उनके पद और साखि ग्रन्थों के रूप में संगृहीत हुई। इन संग्रहों की संख्या ७९ कही जाती है। इसमें ‘बीजक’ सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना। इसके तीन भाग है-साखी, सबद और रमैनी। इनमें वेदान्त तत्त्व, हिन्दू-मुसलमानों को फटकार, संसार को अनित्यता, बाहा आडम्बरों का विरोध आदि अनेक प्रसंग मिलते हैं।
‘ साखी’ दोहों के रूप में मिलती हैं, वैसे ये दोहे नहीं दोहों की भाँति ‘ साखी’ छन्द है। कबीर ने लगभ हजार साखियाँ लिखीं। ‘सबद’ पदों के रूप में मिलते हैं। कबीर के आध्यात्मिक विचार इन पदों में मिलते शब्द को सबद रूप में लिया गया है। ‘रमैनी’ चौपाई छन्दों में निबद्ध हैं। इनमें कबीर-सिद्धान्त वर्णित है
कबीरपंथी साखी, सबद, रमैनियों के संग्रहों को ‘बानी’ कह देते हैं।
सत्संग तथा भ्रमण के प्रभाव से वे ज्ञानी बन गए। हिन्दू-मुस्लिम एवं शूद्र सभी को वे समान भाव से दे थे। वे आग्रहरहित सदाचार-पोषक तथा मिथ्याचरण-विरोधी थे। उनके मन में जो आता, सत्य की कसौटी पर उतरता, उसे ये प्रकट कर देते।
कबीर भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि थे। वे हृदय से भावुक थे। उनकी कविता में कतार अपेक्षा भावपक्ष की प्रधानता पायी जाती है। कबीर-काव्य ज्ञान और भक्ति का संगम है। उनके मतानुसार नीरस
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यहु तन जारी मसि करौं, लिखी राम का नाउँ
लेखणि करी करक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥ १०॥
कै बिरहनि हूँ मीच दे, के आपा दिखलाई।
आठ पहर का दाझणा, मोपै सह्या न जाइ ॥ ११॥
कबीर रेख स्यूँदर की काजल दिया न जाइ।
नैनू रमइया रपि रह्या, दूजा कहाँ सुमाइ ॥ १२॥
सायरे नाहीं सीप बिन, स्वाति बूँद भी नाँहि।
केबोर मोती नीपर्ज, सुन्नि सिषर गढ़ मौहि ॥ १३॥
पाणी ही तै हिम भया, हिम है गया बिलाइ।
जो कुछ या सोई भया, अब कुछ कहा ना जाइ॥ १४॥
पंखि उड़ार्णी गगन के, प्यंड रक्षा परदेस ।
पाणी पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस ॥ १५॥
पंजरि प्रेम प्रकासिया, मुखि कस्तूरी महमहीं,
अंतरि भया वाणी फूटी उजास। बास ॥ १६ ॥
नैनां अन्तर आव तू. ना ही देखों और कै,
ना तुझ नैन पिउँ। देखन देहैं ॥ १७॥
कबीर हरि रस यर्यो, पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुम्हार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ १८ ॥
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ !
बूँद समानी समद मैं. सो कत हेरी जाइ ॥ १९॥
कुबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाँहिं।
सीस उतारै हाथि करि, सौ पैठे घर माँहि ॥ २० ॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नॉहि।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहिं ॥ २१