सूरदास का जीवन-परिचय Surdas Ka Jivan Parichay-
भक्तिकाल की मगुण काव्यधारा को कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि सूरदास का जन्म संवा कि० (सन् १७०८ ई०) में आगरा से मधुरा जाने वाली सड़क पर स्थित उनकता नामक ग्राम में हुआ था, लेकिन कुछ विद्वान् उनका जन्म-स्थान मीही नामक ग्राम को मानते हैं। उनके पिता का नाम पं० रामदास साररत सूरदास बड़े होकर गौघाट पर रहने लगे। वे महाप्रभु बल्लभाचार्य के शिष्य थे। बल्लभाचार्य जी के पुत्र ग विठ्ठलनाथ ने श्रीनाथजी का अष्टप्रहर कीर्तन करने के लिए आठ प्रसिद्ध कवियों को नियुक्त किया था, जिन्हें ‘अष्टछाप’ के नाम से जाना जाता है। सूरदास इनमें शीर्षस्थ थे। आगे चलकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करते रहते थे। सूरदास को जन्मान्ध मानने के सम्बन्ध में विद्वानों में मक्य नहीं है। श्रृंगार और वात्सल्य के सम्रार महाकवि सूरदास का गोलोकवास मथुरा के निकट पारसौली नामक ग्राम में संवत् १६४० वि० (सन् १९५८s fo
साहित्यिक व्यक्तित्व एवं कृतित्व-
जन्मजात काव्य-प्रतिभा के धनी सुरदास ने दास्य एवं सख्य भाव की भक्ति को अपनाया। उनानि मुक्तक पद-रचना करते हुए ‘अष्टछाप’ के कवियों में अपना नाम शीर्षस्य बनाते हुए विशिष्ट काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने सरल सरस पद-रचना के साथ कुछ कूट पद भी रथे। उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्थों की संख्या के विषय में पर्याप्त मतभेद हैं। कोई उन्नीम, कोई सोलह कोई सात और कोई पाँच चताता है, किन्तु उनकी कृतियों में से अब तक ‘सुरभागर’, ‘सूरसारावली’ और ‘साहित्य-लहरी’ ही प्राप्त हुई है। ‘सूरसागर’ में कृष्ण लीला. गोपी-प्रेम, मधुरा-गमन, गोपी विरह, उद्धव गोपों संवाद आदि का विशद् वर्णन है। ‘सूरसारावली’, ‘सूरसागर’ का संक्षिप्त संस्करण है और ‘साहित्य सहरी’ कवि के दृष्टिकृट पदों का संग्रह है। ‘सूरसागर’ में सवा लाख पदों का संग्रह है, किन्तु अभी तक सात हजार पद ही प्राप्त हुए है।
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कृष्ण भक्ति शाखा के सर्वोच्च कवि-
सूर भक्तिकाल की कृष्णभक्ति शाखा के सर्वोच्य कवि है, अतः उनके काव्य में कृष्ण की भक्ति के रराथ साथ कृष्ण के लोकमान्य रूप का मनोहर चित्रण पाया जाता है। उनके काव्य में भाव और कला का अद्भुत समन्वय हुआ है। भावपक्ष जितना सजीव, मार्मिक और हृदयस्पर्शी है, कलापक्ष उतना ही सशक्त और प्रभावोत्पादक
सूर कृष्ण-भक्त कवि थे। वल्लभाचार्यजी के सम्पर्क में आने से पूर्व उनकी भक्ति में दास्य भाव विद्यमान था। उसमें निवेदन, करुणा, दीनता, पाचना, हीनता आदि के भाव थे। “मेरी मन अनत काहाँ सुख पावै” तथा “अब कै राखि लेहु भगवान् जैसे पद दास्य भाव से प्रेरित है।
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बाल-स्वभाव-चित्रण –
सुर ने बाल लीला के वर्जन में कृष्ण के सुन्दर, सरल और सजीव चित्र उपस्थित किया है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।और माखन चोरी की सारी बाल-सुलभ लीलाओं में सूर के बाल-स्वभाव है।मूह बाल-मनोविज्ञान के ज्ञाता दे। गाँ के हृदय की भावनाएँ देखते ही बनती है
जसोदा हरि पालने झुलायें, हलरावै दुलरावै मल्हारी,
श्रृंगार रस-चित्रण –
सूर श्रृंगार के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) का भोक हैं। सलीला, मुरली-माधुरी और चीरहरण में संयोग को चरमावस्या को देखा जा सकता है। राधा की समुटली बार देखते ही कृष्ण रीक्ष जाते हैं, उनका परिचय पूछना कितना स्वाभाविक है-
बूझत स्याम कौन तू गोरी। कहाँ रहति काकी तू वेटी, देखी नाहिं कबहुँ ब्रज खोरी॥
किन्तु यही कृष्ण गोपियों को बिलखता छोड़ मथुरा चले जाते हैं। गोपियों का विरह-दुःख दिन दूना रात चौगुना बढ़ जाता है। उनकी आँस्त्रों में दिन-रात आँसुओं की वर्षा होती रहती है और अनु बरसाने में तो उनको आँखें सदा ही सावन भादों के बादलों को भी मात कर देती हैं-
सखि इन नैनन ते घन हारे। विनु ही रितु बरसत निसि-बासर, सदा सजल दोउ तारे ॥
संयोग के समय आनन्द को बढ़ाने वाली समस्त वस्तुएँ वियोग को और अधिक तीव्र कर देती है। गोपियाँ भी मधुबन का फलना-फूलना पसन्द नहीं करतीं और लता-कुम्ब उन्हें ‘बैरिन’ लगती है-
“बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजें। तब ये लता लगति अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजें।”
भाषा-
सूरदास को भाषा प्रचलित व्यावहारिक ब्रजभाषा है। यह स्वाभाविक, व्यावहारिक तथा माधुर्य और प्रसाद गुणों से युक्त है। इसमें कहीं-कहीं अरबी, फारसी, पंजाबी, गुजराती, संस्कृत आदि के शब्द पाए जाते हैं। प्रायः उन्होंने अन्य भाषाओं के शब्दों को तद्भव रूप में ही ग्रहण किया है। भाषा में लाक्षणिकता व ध्वन्यात्मकता भी विद्यमान है। जहाँ तहाँ व्याकरण की अशुद्धियाँ और शब्दों की तोड़-मरोड़ भी पायी जाती है। कहीं कहीं मुहागरों और कहावतों के सुन्दर संयोग ने भाषा में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है।
शैली –
सूर का सम्पूर्ण काव्य गेव पदों के रूप में है, अतः हम सूर की शैली की ि हैं। हमें उनकी रचनाओं में इस शैली के तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं-
है। यह शैली भावाभिव्यंजक तथा प्रवाहपूर्ण है।
(२) बाल-लीला तथा गोपी-प्रेम के वर्णन में एक कथानक के रूप में, जहाँ कवि का ध्यान भगवान की रसमय लीला का वर्णन करना होता है, वहाँ सूर की शैली सरल प्रवाहपूर्ण और मधुर है। (३) एक पण्डित के रूप में, जहाँ कवि अपने शास्त्रीय ज्ञान तथा आचार्यत्व को दिखाना चाहता है, वहाँ सूर
को शैली अस्पष्ट, कठिन तथा दुरूह हो गयी। ‘साहित्य-लहरी’ में इस शैली का बावहार हुआ है। सूर की रचनाओं में वात्सल्य, श्रृंगार और शान्त रस अपने उत्कृष्ट रूप में पाए जाते हैं। बाल लीला के वर्णन में वात्सल्य, गोपी-प्रेम में श्रृंगार और विनय के पदों में शान्त रस के दर्शन होते हैं। वात्सल्य वर्णन में सूरदास सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। वात्सल्य-वर्णन में वे कोना-कोना झाँक आए हैं।
रस एवं अलंकार
कवि ने अलंकारों का प्रयोग पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए नहीं किया है, लेकिन उनकी रचनाओं में प्रायः सभी अलंकार पाए जाते हैं, परन्तु उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि उनके प्रिय अलंकार है।
छन्द-विधान की दृष्टि से देखें तो उनके पदों में चौपाई, दोहा, रोला, तोमर, गीतिका, घनाक्षरी, हरिप्रिया, सवैया, लावनी आदि प्रमुख छन्द है। सूर की समस्त रचनाएँ मुक्तक काव्य के रूप में गेय पदों में हैं। उनके काव्य में संगीत का सुन्दर समन्वय है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
संस्कृत साहित्य में जो स्थान आदिकवि वाल्मीकि का है, वही स्थान ब्रजभाषा साहित्य में सूर का है। सूर एक भावुक कवि, सच्चे भक्त, अनुशासित सेवक, सरल हृदय और निर्भीक सन्त पुरुष थे। सूर के बारे में ठीक ही कहा जाता है-
किधाँ सूर को सर लग्यौ, किधाँ सूर की पीर। किथाँ सूर को पद लग्यौ, बेध्यी सकल शरीर ॥
विनय
अब कैं राखि लेहु भगवान।
हाँ अनाथ बैठ्यो द्रुम-डरिया, पारधि साधे ब्रान ॥ ताकै डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान। दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारै प्रान ? सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान। सूरदास सर लग्यौ सचानहीं, जय-जय कृपानिधान ॥ १ ॥ मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पच्छी, फिरि जहाज पर आवै। कमल-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्यावै। परम गंग को छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ॥ जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल भावै। सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥
वात्सल्य
हरि जू की बाल-छबि कहाँ बरनि। सकल सुख की सींव, कोटि-मनोज-सोभा-हरनि ॥ भुज भुजंग, सरोज नैननि, बदन बिधु जित लरनि। रहे बिवरनि, सलिल, नभ, उपमा अपर दुरि डरनि ॥ मंजु मेचक मृदुल तनु, अनुहरत भूषन भरनि। मनहु सुभग सिंगार-सिसु-तरु, फौ अद्भुत फरनि ॥ चलत पद-प्रतिबिंब मनि आँगन घुटरुवनि करनि। जलज-संपुट-सुभग-छबि भरि लेति उर जनु धरनि ॥ पुन्य फल अनुभवति सुतहिं बिलोकि कै नंद घरनि। सूर प्रभु की उर बसी किलकनि ललित लरखरनि ॥
भ्रमर — गीत
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। हंस-सुता की सुन्दर कगरी, अरु कुञ्जनि की छाँहीं ॥ वै सुरभी वै बच्छ दोहिनी, खरिक दुहावन जाहीं। ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि-गहि बाहीं ॥ यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं। जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ॥ अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नन्द निबाहीं। सूरदास प्रभु रहे मौन है, यह कहि-कहि पछिताहीं ॥ ४॥ बिनु गुपाल बैरिनि भई कुंजें। तब वै लता लगतिं तन सीतल, अब भईं विषम ज्वाला की पुंर्जे ॥ वृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल-फूलनि अलि गुंजें। पवन, पान, घनसार, संजीवन, दधि-सुत किरनि भानु भईं भुजै ॥ यह ऊधौ कहियौ माधौ सौं, मदन मारि कीन्हीं हम लुंजें। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, मग जोवत अँखियाँ भई छुर्जे ॥ ५॥ हमारें हरि हारिल की लकरी। मनक्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी ॥ जागत-सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी। सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्याँ करुई ककरी ॥ सु तौ व्याधि हमकाँ लै आए, देखी सुनी न करी। यह तौ सूर तिनहिं लें सौंपौ, जिनके मन चकरी ॥ ६॥ ऊधौ जोग जोग हम नाहीं। अबला, सार-ज्ञान कह जानें कैसें ध्यान धराहीं ॥ तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं। ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतें सुनी न जाहीं ॥ स्रवन चीरि सिर जटा बधावहु, ये दुख कौन समाहीं। चंदन तजि अँग भस्म बतावत, बिरह-अनल अति दाहीं ॥