Yashpal Biography in hindi यशपाल का जीवन परिचय |
यशपाल कहानीकार यशपाल का जन्म सन् 190.3 ई० में फिरोजपुर छावनी (पंजाब) में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘गुरुकुल काँगड़ों में हुई। इसके उपरान्त इन्होंने ‘नेशनल कॉलेज, साहीर’ में माध्यमिक एवं उच्चशिक्षा प्राप्त की। वहीं ये भगतसिंह तथा सुखदेव जैसे जान्तिकारियों के सम्पर्क में आए और उनसे प्रभावित होकर सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलनों में सक्रिय हो गए। राजद्रोह के अभियोग में इनको कठोर कारावास का दण्ड मिला। इनानि लखनऊ से प्रकाशित एक लोकप्रिय मासिक पत्र ‘विप्लव’ का संचालन भी किया। कारागार में रहते हुए भी ये स्वाध्याय तथा कहानी-लेखन में रत रहे। 26 दिसम्बर, 1976 ई० में इनका देहावसान हो गया।
यशपालजी के कथा-संकलन हैं पिंजों की उड़ान’, ‘ज्ञानदान’, ‘अभिशप्त’, ‘तर्क का तूफान’, ‘भस्मावृत चिनगारी’, ‘वो दुनिया’, ‘फूलो का कुर्ता’, ‘धर्मयुद्ध’, ‘उत्तराधिकारी’ तथा ‘चित्र का शीर्षक’। ‘दादा कामरेड’, ‘देशद्रोही’, ‘पार्टी कामरेड’, ‘दिव्या’, ‘मनुष्य के रूप में’, ‘अमिता’ तथा ‘झूठा सच’ इनके
प्रसिद्ध उपन्यास हैं। इसके अतिरिक्त इनके निबंधों तथा संस्मरणों के संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। यशपालजी की कहानियों में जीवन संघर्ष में रत एवं सन्तप्त मानव स्वर जीवन्त रूप में मुखर हुज्य है। इन पर मार्क्सवादी विचारधारा का गहन प्रभाव देखने को मिलता है।
यशपालजी ने समस्याप्रचान, सरल एवं स्पष्ट कथानकवाली कहानियों लिखी है। कथानक अधिकतर मध्यमवर्गीय जीवन से चुने गए हैं। इन्होंने विविध वगों, स्थितियों एवं जातियों पर आधारित पात्रों से सम्बन्धित जीवन-रघर्ष, विद्रोह एवं उत्साह के सजीव चित्र प्रस्तुत किए है। कहानियों में पात्रों का चरित्र चित्रण मनोवैज्ञानिक आधार पर हुआ है।
इनकी कहानियों को भाषा-शैली व्यावहारिक एवं सरल है। इन्होने जनसाधारण में प्रचलित अन्य भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से रोचकता में वृद्धि हुई है। उर्दू, फारसी के शब्द भी इनकी भाषा में प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए है। सामाजिक विकृतियों पर इन्होंने तीखे व्यंग्य किए हैं। इनके कथोपकथन अकृत्रिम एवं स्वाभाविक हैं तथा वे पात्रों की मनोदशा का स्पष्ट चित्रांकन करने के साथ ही कथावस्तु को विकसित करने में पूर्ण रूप से
सक्षम सिद्ध हुए है।
‘धर्मयुद्ध’, ‘फूल की चोरी’, ‘चार आने’, ‘अभिशप्त’, ‘कर्मफल’, ‘फूलों का कुर्ता’, ‘पाँव तले की डाल’ आदि यशपालजी की प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
समय
पापा को अपने में रिटायर हो जाने के दो वर्ष पूर्व से ही चिता सिर उठाने लगी थी-रिटायर ही भी हो जाते हैं? सोचिए नौकरी करते समय अवकाश के दि की जाती है। जब दीर्घ अम के पुरस्कार में पूर्ण अवकाश का अवसर आ जाए ती निकाह होने का क मानकर, उससे पूरा लाभ उठाना और सन्तोष पाना चाहिए। अभाव या मुक्ति मिलेगी केवल मजबूरी में, ड्यूटी को मजबूरी से। आराम और अपनी इच्छा से श्रम करने में तो कोई क नहीं पालेगा। अध्ययन का मनचाहा अवरर होगा और घर-आदेश से मुक्ति। इससे बड़ा सन्तोष दूसरा कद चाहिए !
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पापा के मन में बुढ़ापे और बुजुर्गों से या कहिए बूढ़े और बुजुर्ग समझे जाते से सदा विरक्ति रही है। रिटाय होने पर मितव्ययिता के विचार से गर्मियों में पहाड़ जाना छोड़ दिया है। सर्विस के समय गर्मियों में महीने दो महीन हिल स्टेशनों पर रह लेने का बहुत शौक था। प्रतिवर्ष नहीं तो दूसरे वर्ष अवश्य पहाड़ जाते थे। पहाड़ कते है बढ़ाइयों पर सुविधा से चल सकने के लिए एक-दो छड़ियों जरूर खरीद लेते और हर बार नई छड़ियों खरीद परन्तु लखनऊ लौटने पर बाजार या सैर के लिए जाते समय छड़ी उनके हाथ में न रहती। कभी स्वास्थ्य का विधा आ जाता या शरीर पर मांस अधिक चढ़ने की आशंका होने लगती तो सुबह-शाम तेज चाल से सैर आरम्भ का देते। प्रातः मुँह अंधेरे सैर के लिए जाते समय अम्मी के सुझाने पर कुत्तों या दोर डंगरों से सावधानी के लिए बड़ी हाथ में होने पर भी उसे टेककर न चलते थे। छड़ी को पुलिस या सैनिक अफसर की तरह, बेटन के ढंग से, हाथ में लिए रहते। छड़ी टेककर चलना उनके वित्तार से बुढ़ापे या बुजुर्गी का चिह था।
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पापा का कायदा था कि सन्ध्या समय टहलने के लिए अथवा शापिग के लिए भी जाते तो केवल अम्मी को साथ ले जाते थे। बच्चों को साथ ले जाना उन्हें कम पसन्द था। अन्य बच्चों की तरह हम लोगों को भी अम्मी-पाप के साथ बाजार जाने की उत्सुकता बनी रहती थी। बाजार में हम बच्चे कोई भी चीज माँग लेते तो तनिक दुनकने में ही मनचाही चीज मिल जाती थी। बाजार में पापा हम लोगों को डाँटते धमकाते नहीं थे। उन्हें बाजार में तमाश बनना पसन्द नहीं था। इसलिए अम्मी और पापा बाजार जाने के लिए तैयार होने लगते तो हम लोगों को नीकर य आया के साथ इधर-उधर टहला दिया जाता। बच्चों को बाजार ले चलने की अनिच्छा में सम्भवतः पापा के बुजुर्ग न जान पड़ने की भावना भी अवचेतना में रहती होगी।
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पापा ने अवकाश प्राप्त हो जाने पर अवकाश के बोझ से बचने के लिए अच्छी-खासी दिनचर्या बना ती अवकाश प्राप्ति से कुछ महीने पूर्व ही उन्होंने योजना बना ली थी कि शासन कार्य के छत्तीस वर्ष के अनुभव चिन्तन के आधार पर ‘एथिक्स ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन’ (शासन का नैतिक पक्ष) पर एक पुस्तक लिखेगे। दोपहर में पूर्व और अपराह्न में कम-से-कम दो-दो घण्टे इस विषय में अध्ययन करते रहते हैं अथवा नोट्स लिखते रहते। पहले उन्हें काम के दबाव के कारण कम अवसर मिलता था, परन्तु अब सप्ताह में एक-दो दिन निकट सम्बन्धि साग-सब्जी की खरीद उनके बस की नहीं। वह काम पहले अम्मी करती थी और अब भी रिक्शा पर बैठकर स्वयं ही करती हैं। अलबत्ता हल्की फुल्की चीजे, ट्यबुश, ब्लेड, सिगार-सिगरेट, मोजे-रूमाल और दवा दास की खरीद के लिए पापा सन्च्या के समय स्वयं हजरतगंज पैदल जाते हैं। कारण वास्तव में कुछ बलने फिरने का बहाना। पापा के स्वभाव और व्यवहार में कुछ और भी परिवर्तन आए है। पहले उन्हें अपनी पोशाक चुस्त रखने और व्यक्तिगत की बड़िया चीजों का शौक रहता था। पोशाक के मामले में ये बिल्कुल बेपरवाह नहीं हो गए हैं। परन्तु गत तीन वर्षों में जाड़े के आरम्भ में अम्मी हर बार उनसे एक नया ऊनी सूट बनवा लेने का अनुरोध कर रही है। पापा पुराने कपड़ों को काफी चताकर टाल जाते हैं। यही बात जूतों के मामले में भी है। अम्मी खीझकर कहती है- अपने लिए उन्हें जाने क्या कजूसी हो गई है। चच्चों को पहाड़ पर या सैर के लिए बाहर भेज देंगे। उनके लिए कपड़ों की जरुरत भी दिखाई दे जाती है, अपने लिए कुछ नहीं….लगता है पाय अब अपने शौक और रुचियों को बच्चों द्वारा पूरा होते देखकर सन्तोष पाते हैं: मानो उन्होंने अपने व्यक्तित्व का न्यास बच्चों में कर लिया है।
पापा के बच्चों को बाजार साथ न ले जाने के रवैये में भी परिवर्तन हो गया है। उनके रवैये में परिवर्तन का एक प्रकट कारण यह हो सकता है कि अम्मी अब अपने स्वास्थ्य के कारण पैदल बलने से कतराती हैं और हम लोग उंगली पकड़कर साथ चलनेवाले बच्चे नहीं रह गए हैं। कभी पापा या अम्मी के साथ चलना होता है तो हमारे कन्चे उनके बराबर या कुछ ऊंचे ही रहते हैं। पापा को आशंका नहीं है कि बच्चे बाजार में गुब्बारे वाले या आइस्क्रीमवाले को देखकर हाथ फैलाकर ठुनकने लगेगे, अब शायद अपने जवान, स्वस्थ सुडौल बच्चों की संगति में उन्हें कुछ गर्व भी अनुभव होता होगा। इसलिए सन्ध्या समय हजरतगंज का बाजार जाते समय कभी मुझे, कभी मण्ट्र बहन को, कभी गोगी को, कभी कजिन पुष्पा को ही साथ चलने का संकेत कर देते हैं। उनके साथ हजरतगंज जाने पर हम लोगों की चाकलेट टाफी या आइसक्रीम के लिए कहना नहीं पड़ता। पापा हजरतगंज का चक्कर पूरा करके स्वयं ही प्रस्ताव कर देते है- “कहो, क्या पसन्द करोगे? कॉफी या आइसक्रीम?”
हमारे समवयस्क साथी हम लोगों को बाजार, पार्क या रेस्तरों में पापा के साथ देखकर कभी-कभी आंख दबाकर या किसी संकेत से हमारी स्थिति के प्रति विद्रूप या करुणा प्रकट कर देते हैं। निस्सन्देह पापा की उपस्थिति में सभी प्रकार की हरकते या बातें नहीं की जा सकती, परन्तु उनकी संगति बोर या उबा देनेवाली भी नहीं होती। वे अन्य अवकाश प्राप्त लोगों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार केवल अपनी नौकरी के अनुभवों, ऐडवेंचर्स, नवयुवक लड़के-लड़कियों के लिए उपयुक्त विवाह सम्बन्धो अथवा पुराने जमाने की मस्ती और आज की महंगाई की ही चर्चा नहीं करते। उनके मानसिक सम्पर्क और चिन्ताएँ वैयक्तिक और पारिवारिक क्षेत्र में सिमट जाने के बजाय पढ़ने और सोचने का अधिक अवसर पाकर कुछ फैल ही गई हैं। उनकी बातचीत में चुस्ती और हाजिर जवाबी कम नहीं हुई, बल्कि अपने को तटस्थ और अनासक्त समझ लेने से उनका तीखापन कुछ बढ़ गया। परन्तु हम लोग उनकी संगति के लिए बचपन के दिनों की तरह लालायित नहीं रह सकते। कारण यह है कि अठारह-बीस पार कर लेने पर हम लोग भी अपना व्यक्तित्व अनुभव करने लगे हैं। हम लोगों की अपनी वैयक्तिक